
जब मैं अहिच्छत्र के मंदिर प्रांगण में प्रवेश कर रही थी, मन एक पल के लिए ठहर गया। बचपन की वे स्मृतियाँ जो नागों के सपनों से जुड़ी थीं, मानो सजीव हो उठीं। हर मूर्ति के चारों ओर नागों की आकृतियाँ, हर शिला पर तप की कहानियाँ, और हर हवा में बसी भगवान पार्श्वनाथ की तपस्या की पवित्रता — इस भूमि ने जैसे आत्मा को छू लिया।
यह कोई साधारण तीर्थ नहीं, यह तो आत्म-शुद्धि का जिवंत साक्षात्कार है। यह वहीं भूमि है जहाँ भगवान पार्श्वनाथ ने अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख और अनंत चारित्र को प्राप्त कर केवलज्ञानी बने। वही क्षण, वही ऊर्जा आज भी वहाँ मौजूद है — समय से परे, चेतना के हर स्तर को स्पर्श करती हुई।
“नागों की छत्रछाया में जन्मा एक तीर्थ”

अहिच्छत्र का नाम ही इसकी चमत्कारिक कथा से जुड़ा है। जब पार्श्वनाथ प्रभु गहन तपस्या में लीन थे, उनके सौतेले भाई कामठ ने उन्हें डिगाने के लिए मूसलधार वर्षा कराई। तभी नागराज धर्मेन्द्र ने अपने सहस्त्र फनों की छाया से प्रभु की रक्षा की, और पद्मावती देवी ने उन्हें चारों ओर से घेर लिया। यही से इस भूमि का नाम पड़ा — “अहिच्छत्र” अर्थात “सर्पों की छत्रछाया वाली भूमि”।
तीर्थ का चमत्कार और वास्तु-विरासत
• अहिच्छत्र तीर्थ को “अतिशय क्षेत्र” कहा जाता है — जहाँ चमत्कार घटित होते हैं।
• यहाँ का कुएँ का जल औषधीय गुणों से युक्त माना जाता है।
• चैत्र कृष्ण अष्टमी से लेकर श्रावण शुक्ल सप्तमी तक यहाँ विशाल मेला आयोजित होता है।
तीर्थ परिसर में स्थित प्रमुख मंदिर:
• दिगंबर टिकाल वाले बाबा का प्राचीन मंदिर (10वीं शताब्दी)
• तिस चौबीसी मंदिर (720 तीर्थंकर) — 2002 निर्मित
• पार्श्वनाथ-पद्मावती मंदिर — 2007 में निर्मित
• श्वेतांबर मंदिर जिसमें 1000 से अधिक मूर्तियाँ
यहाँ की धर्मशालाएँ और भोजनशालाएँ आज के समय में भी उतनी ही सेवाभावी हैं जितनी किसी प्राचीन युग में होती थीं।
केवलज्ञान: आत्मा की परम स्थिति
केवलज्ञान का अर्थ है — उस आत्मा का पूर्ण जागरण जो समस्त कर्म-बंधन से मुक्त होकर अनंत ज्ञान प्राप्त कर लेती है।
यह ज्ञान तभी प्राप्त होता है जब ये चार ज्ञान-बाधक कर्म समाप्त हो जाते हैं:
1. ज्ञानावरण कर्म
2. दर्शनावरण कर्म
3. मोहनीय कर्म
4. अंतराय कर्म
भगवान पार्श्वनाथ ने जब इन सभी कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त किया, तब वे सम्पूर्ण जगत को जाननेवाले बने — भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों समय उनके लिए एक ही क्षण बन गए।
मन की अनुभूति
इस तीर्थ में विचरते हुए मन बार-बार उसी प्रश्न में उलझता है — क्या मैं भी कभी उस आत्मशुद्धि की ओर बढ़ पाऊँगी? क्या मेरा तप, मेरा संकल्प और मेरी श्रद्धा मुझे उस दिशा में ले जा सकती है जहाँ आत्मा केवलज्ञानी हो जाए?
अहिच्छत्र केवल एक तीर्थ नहीं — यह आत्मा की यात्रा का एक जीवंत पड़ाव है। यहाँ हर मूर्ति बोलती है, हर पत्थर तपस्या की गाथा सुनाता है, और हर कोना जीवन की गहराई को उजागर करता है।
अंत में…
अहिच्छत्र एक अद्भुत मिलन है — इतिहास का, आस्था का, दर्शन का और आत्मा के उत्कर्ष का।
यहाँ आकर लगता है जैसे आत्मा को उसकी खोई हुई दिशा मिल गई हो।
जय जिनेन्द्र।
लेखक के विचार व्यक्तिगत हैं।
डॉ. तनु जैन, सिविल सेवक रक्षा मंत्रालय आध्यात्मिक वक्ता द्वारा लिखित।